बिहार की राजनीति में छोटी छोटी पार्टियां ला सकती हैं बड़ा बदलाव

भारतीय राजनीति में बिहार को सियासी प्रयोगशाला समझा जाता है। यहां पर कई ऐसे दिग्गज राजनेता हुए, जिसे चुनावी मौसम विज्ञानी तक करार दिया गया। इनमें पूर्व केंद्रीय मंत्री स्व. रामविलास पासवान और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का नाम अग्रगण्य है। चूंकि बिहार विधानसभा 2025 के लिए अक्टूबर-नवम्बर में चुनावी होने हैं, इसलिए यह महत्वपूर्ण चुनावी साल भी है, जिसके दृष्टिगत सभी राजनीतिक दल अपने अपने समीकरण बनाने में जुट गए हैं।यूँ तो राज्य में कुल 243 सीटें हैं और दो बड़े गठबंधन हैं। जिनमें भाजपा और जेडीयू आदि की भागीदारी वाला एनडीए अभी सत्ता में है और कांग्रेस व आरजेडी आदि की भागीदारी वाला महागठबंधन विपक्ष में है। वहीं, दोनों ही गठबंधन में कुल 10 महत्वपूर्ण राजनीतिक पार्टियां हैं, जो जाति-धर्म-क्षेत्र के आधार पर या फिर कहें कि खुद को सत्ता में बनाए रखने की संभावनाओं के आधार पर भारी उलटफेर करती रहती हैं, जिससे भाजपा और कांग्रेस जैसे बड़े दलों का सियासी कद भी उनके सहयोगियों की जिद्द के समक्ष बौना नजर आता है। यहां की राजनीति में जदयू सुप्रीमो व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने गठबंधन में उलटफेर का ऐसा कीर्तिमान स्थापित किया है कि बिहार के कई सारे सियासी रिकॉर्ड को उन्हें ध्वस्त कर अपने नाम कर लिया है।इसे भी पढ़ें: क्या बिहार चुनाव से पहले INDIA Bloc में शामिल होंगे प्रशांत किशोर? कांग्रेस ने दिया जवाबवहीं, नीतीश कुमार और पूर्व मुख्यमंत्री व राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद की सियासी हनक से प्रेरणा लेते हुए कई ऐसे राजनीतिक दल अस्तित्व में आए हैं, जो अपने अपने इलाकों में अच्छे-खासे सक्रिय नजर आ रहे हैं और किसी भी प्रतिद्वंद्वी के सियासी भविष्य को मटियामेट करने लायक व्यापक प्रभाव रखते हैं। इनमें नवस्थापित जनसुराज पार्टी के सर्वेसर्वा प्रशांत किशोर के अलावा पुष्पम प्रिया, असदुद्दीन ओवैसी और आरसीपी सिंह आदि की पार्टी प्रमुख है, क्योंकि ये नेता ना तो लालू यादव-कांग्रेस के खेमे से जुड़े हैं और ना ही नीतीश कुमार-बीजेपी के खेमे में हैं। इसलिए यह समझा जा सकता है कि 2025 के विधानसभा चुनाव में इन नेताओं की पार्टियां किसी तीसरे मोर्चे के रूप में उभर रही हैं, जो पारंपरिक गठबंधनों से अपनी अलग और अलहदा पहचान बनाने की कोशिश में जुटी हुई हैं। कहने का तातपर्य यह कि ये दल स्वतंत्र रूप से अपनी अपनी राजनीतिक गतिविधियों में लगे हुए हैं, जो यदि बिहार विधानसभा की 10-20 प्रतिशत सीटें भी जीतने में कामयाब हो गए तो नीतीश कुमार और लालू प्रसाद का रिमोट कंट्रोल अपने हाथ में रखने में सफल होंगे।भारतीय इतिहास में चंपारण आंदोलन के बाद महात्मा गांधी जिस तरह से पूरे देश में चमके और सम्पूर्ण क्रांति के बाद जयप्रकाश नारायण जिस तरह से समूचे राष्ट्र में लोकप्रिय हुए, उससे यहां की सियासी हवा को समझा जा सकता है। वैसे भी हिंदी पट्टी की राजनीति गैर कांग्रेस और गैर भाजपा राजनीति के लिए मुफीद समझी जाती है, जबकि लंबे समय तक कांग्रेस ने और फिर भाजपा ने इसे मनमाफिक हांका है। लालू प्रसाद और नीतीश कुमार इसी सियासी दांवपेंच की सफल पैदाइश समझे जाते हैं। हालांकि, बिहार की नई पीढ़ी अब इस तरह की घाती-प्रतिघाती राजनीति से ऊब चुकी है। इसलिए साल 2025 में वहां कुछ नया करिश्मा हो जाए तो कोई हैरत की बात नहीं होगी। आप मानें या न मानें, लेकिन बिहार की राजनीति को पड़ोसी प्रान्त उत्तरप्रदेश, झारखंड और पश्चिम बंगाल और पड़ोसी देश नेपाल व बंगलादेश की राजनीति भी प्रभावित करती है। पाकिस्तान और अरब देशों की सियासत का प्रभाव भी बैक डोर से यहां की राजनीति पर पड़ती है, इसलिए यहां की राजनीति को एकतरफा रूप से प्रभावित करने में कभी लालू प्रसाद सफल हुए तो कभी नीतीश कुमार। अब आगे की लड़ाई उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी (भाजपा), पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव (राजद), चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर (जनसुराज पार्टी) और युवा तुर्क नेता कन्हैया कुमार (कांग्रेस) के बीच यदि सिमट जाए तो किसी के लिए हैरत की बात नहीं होगी। वैसे भी सम्राट चौधरी का सियासी ग्राफ सबसे ऊपर चल रहा है, क्योंकि आरएसएस और भाजपा, दोनों को उनमें अपना सियासी भविष्य दिख रहा है। नीतीश कुमार के स्वाभाविक विकल्प के तौर पर वो उभरे हैं।आपकी सियासी याद तरोताजा कर दें कि बिहार में 2020 के विधानसभा चुनाव में 212 पार्टियों ने हिस्सा लिया था, जबकि 2024 के लोकसभा चुनाव में 96 पार्टियां मैदान में उतरी थीं। यह बात अलग है कि 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में दर्जनों पार्टियां ऐसी थीं, जिन्होंने सिर्फ एक-एक सीट पर ही अपने उम्मीदवार उतारे थे। वहीं, कई पार्टियों ने 2, 3, 4, 5, 6 उम्मीदवारों को टिकट दिए थे। इससे राजद को परोक्ष लाभ मिला था, जिससे वह मजबूत तो हुई लेकिन सत्ता तक नहीं पहुंच पाई।तब बिहार में एनडीए की सरकार बनी, ब्रेक के बाद अभी भी वहां पर एनडीए की ही सरकार है। क्योंकि 2020 के चुनाव में एनडीए ने 125 और महागठबंधन ने 110 सीटें जीती थीं। लेकिन कुशल सियासी रणनीति वश वर्तमान में एनडीए के खेमे में 129 विधायक हैं, जिनमें बीजेपी के 80, जेडीयू के 45 और जीतनराम मांझी की हम (HAM) पार्टी के 4 विधायक हैं। वहीं, विपक्ष के पास 107 विधायक हैं, जिनमें आरजेडी के 77, कांग्रेस के 19 और सीपीआई (एमएल)/CPI (ML) के 11 विधायक हैं। यहां पर बहुमत के लिए 122 विधायक होना जरूरी है। ऐसे में 45 विधायकों वाले नीतीश कुमार का मुख्यमंत्री बनना अपने आप में एक सियासी करिश्मा नहीं तो क्या है?बता दें कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी), जनता दल (यूनाइटेड), हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (हम), लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास), राष्ट्रीय लोक मोर्चा (आरएलएम) आदि के नाम प्रमुख हैं। वहीं, महागठबंधन में राष्ट्रीय जनता दल (राजद), भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अलावा वामपंथी दलों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-ल

Mar 29, 2025 - 13:39
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बिहार की राजनीति में छोटी छोटी पार्टियां ला सकती हैं बड़ा बदलाव
बिहार की राजनीति में छोटी छोटी पार्टियां ला सकती हैं बड़ा बदलाव

बिहार की राजनीति में छोटी छोटी पार्टियां ला सकती हैं बड़ा बदलाव

Haqiqat Kya Hai

लेखिका: साक्षी कुमारी, टीम नेटानागरी

परिचय

बिहार की राजनीति हमेशा से ही जटिल और विविधतापूर्ण रही है। जहां एक ओर बड़ी पार्टियों का दबदबा होता है, वहीं दूसरी ओर छोटी पार्टियां भी अपने खास मुद्दों के साथ उभर रही हैं। यह छोटी पार्टियां न केवल चुनावी समीकरण को बदल सकती हैं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तनों का भी कारण बन सकती हैं। इस लेख में हम यह जानेंगे कि कैसे ये छोटी पार्टियां बिहार की राजनीति में बड़ा बदलाव ला सकती हैं।

छोटी पार्टियों का उदय

बिहार में कई छोटी पार्टियां जैसे कि जन अधिकार पार्टी, भारत विकास पार्टी, और कई अन्य क्षेत्रीय दल सक्रिय हैं। ये पार्टियां अपने-अपने विशेष मुद्दों पर ध्यान केंद्रित कर रही हैं, जैसे कि शिक्षा, स्वास्थ्य, और सामाजिक न्याय। इनका उदय न केवल चुनावी मैदान में नई धार पैदा करता है, बल्कि यह बड़े दलों को भी चुनौती दे सकता है।

जनता की आवाज

छोटी पार्टियों की सबसे बड़ी ताकत उनकी स्थानीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना है। ये पार्टियां आम जनता की समस्याओं को उठाती हैं और उनके समाधान के लिए ठोस कदम उठाने का आश्वासन देती हैं। उदाहरण के लिए, जन अधिकार पार्टी ने कई बार जातिगत भेदभाव, पंचायत चुनाव, और स्थानीय विकास योजनाओं को लेकर आवाज उठाई है।

अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय लड़ाई

छोटी पार्टियां न केवल स्थानीय मुद्दों पर काम कर रही हैं, बल्कि वे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी महत्वपूर्ण मुद्दों पर विचार कर रही हैं। उदाहरण के लिए, सामाजिक मीडिया का उपयोग कर चुनावी प्रचार करना, युवाओं को जोड़ना और ऑनलाइन प्लेटफार्मों का इस्तेमाल करना। इस तरह की रणनीतियां उन्हें अधिक सशक्त बनाती हैं।

बड़े दलों की चुनौती

छोटी पार्टियों की वृद्धि ने बड़े दलों के लिए एक चुनौती उत्पन्न कर दी है। यदि ये पार्टियां चुनावों में सफल होती हैं, तो वे सत्ता के समीकरण को पूरी तरह से बदल सकती हैं। इससे बड़े दलों को अपने कार्यों और नीतियों में सुधार करने की आवश्यकता महसूस होगी।

निष्कर्ष

छोटी छोटी पार्टियां बिहार की राजनीति में एक बड़ी भूमिका निभा सकती हैं। उनके उदय के साथ, विभिन्न मुद्दों पर चर्चा होने की संभावना बढ़ती है और विकास और सामाजिक न्याय की दिशा में नए दृष्टिकोण सामने आते हैं। अंततः, यह कहना गलत नहीं होगा कि बिहार की राजनीति में बदलाव के लिए छोटी पार्टियां एक महत्वपूर्ण साधन साबित हो सकती हैं।

kam sabdo me kahein to: बिहार की छोटी पार्टियां राजनीति में बड़ा बदलाव ला सकती हैं, जो सत्ता संतुलन को बदलने में सक्षम हैं।

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