सोशल मीडिया बच्चों को हिंसक एवं बीमार बना रहा है

सोशल मीडिया के बढ़ते उपयोग से बच्चों का बचपन न केवल प्रभावित हो रहा है, बल्कि बीमार, हिंसक एवं आपराधिक भी हो रहा है। यह चिंताजनक एवं चुनौतीपूर्ण है। यह बच्चों को समय के प्रति, परिवार एव सामाजिक कौशल के प्रति और मानसिक स्वास्थ्य के प्रति नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकता है। सोशल मीडिया ने बच्चों से बाल-सुलभ क्रीड़ाएं ही नहीं छीनी बल्कि दादी-नानी की कहानियों से भी वंचित कर दिया है। कुछ विशेषज्ञ इस बात से चिंतित हैं कि सोशल मीडिया के अत्यधिक उपयोग से बच्चे अनैतिक, उग्र, जिद्दी एवं आक्रामक भी हो रहे हैं, जो उन्हें चिंता और अवसाद में धकेल रहे हैं। बच्चें सोशल मीडिया पर वक्त ज्यादा गुजार रहे हैं, ऑनलाइन गेम्स ने बच्चों की दुनिया ही बदल दी है। अब ये आवाज उठने लगी है कि क्यों न बच्चों के लिए सोशल मीडिया के उपयोग को प्रतिबंधित कर देना चाहिए? टेन के हार्परकॉलिन्स और नीलसन आईक्यू की एक अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट में ऐसे ही चिन्ताजक तथ्य सामने आये हैं कि बड़ी संख्या में युवा माता-पिता कहानियों की बजाय डिजिटल मनोरंजन को प्राथमिकता दे रहे हैं। पंचतंत्र से लेकर स्नो व्हाइट पिनोकियो जैसी कहानियां अब शेल्फ पर धूल फांक रही हैं। नये बन रहे समाज एवं परिवार में सोशल मीडिया जहर घोल रहा है।स्मार्टफोन बड़ों ही नहीं, बच्चों के हाथ में आ गया है। जवान और बूढ़े ही नहीं छोटे-छोटे बच्चे तक इसके आदी होते जा रहे हैं। व्हाट्सएप, फेसबुक, गेम्स सब कुछ स्मार्टफोन पर होने की वजह से बच्चों और युवाओं में इसकी आदत अब धीरे-धीरे लत में तब्दील होती जा रही है। सोने के समय बच्चों को कहानियां सुनाना या उनके लिए लोरियां गाना कभी पारिवारिक संस्कृति का अहम हिस्सा हुआ करता था। दादी-नानी हों या माता-पिता की सुनाई गई परीकथाएं बच्चों के लिए नींद से पहले की सबसे प्यारी यादें होती थीं। लेकिन अब सोशल मीडिया के आने से इसके बिना बचपन सूना हो रहा है। बच्चे किताबों और खेलकूद के मैदानों से दूर हो रहे हैं। स्क्रीन की नीली रोशनी उनकी आंखों के साथ दिमागी सेहत पर भी बुरा असर डाल रही है। इसके अलावा शारीरिक श्रम एवं रचनात्मकता भी कम हो गई है। यह केवल पश्चिमी देशों की ही नहीं, भारत की भी सच्चाई बन चुकी है। जेन जेड यानी 1996 से 2010 के बीच जन्मे युवा माता-पिता अब इस प्यारी परंपरा से मुंह मोड़ रहे हैं। हालिया शोधों से पता चला है कि अब कहानियां पढ़ना-सुनाना जेन जेड माता-पिता के लिए जिम्मेदारी एवं मनोरंजन नहीं बल्कि एक थकाऊ काम बन गया है। मोबाइल अब केवल बच्चों के लिए ही समस्या नहीं है, बल्कि बड़े भी इसकी चपेट में हैं। यह सिर्फ फोन या मैसेज करने तक ही सीमित नहीं रहा है। ना जाने कितने ही तरह के ऐप्स, व्हाट्सएप, फेसबुक जैसी सोशल मीडिया एप, और गेम्स बड़ो एवं बच्चों को दिन भर व्यस्त रखते हैं। लेकिन अगर मोबाइल के बिना आपको बेचैनी होती है तो समझ जाइये कि आप भी इस एडिक्शन के शिकार होते जा रहे हैं जो आपके लिए चिन्ता की बात है।इसे भी पढ़ें: साइबर अपराधियों के बढ़ते हौसलें, आमजन में शिकायत की जानकारी का अभावटेन के हार्परकॉलिन्स और नीलसन आईक्यू की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में खासकर महानगरों और शहरी इलाकों में सोशल मीडिया का बच्चों में प्रचलन अधिक बढ़ रहा है। पढ़ने को मनोरंजन एवं ज्ञान का हिस्सा मानने की बजाय ‘गंभीर पढ़ाई’ से जोड़कर देखा जा रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक नई पीढ़ी के अभिभावकों को लगता है कि बच्चों को कहानी सुनाना एक अतिरिक्त जिम्मेदारी है। शहरीकरण एवं पारिवारिक संरचना में बदलते स्वरूप से पिछले दस सालों में बड़े बदलाव हुए हैं, संयुक्त परिवार की जगह अब एकल परिवार हैं, जहां दादी-नानी जैसे कहानी सुनाने वाले सदस्य मौजूद नहीं है। समय की कमी, कामकाजी जीवन की व्यस्तता और थकान के कारण माता-पिता के पास बच्चों को कहानी सुनाने का समय नहीं बचता। नई पीढ़ी के माता-पिता खुद ही पढ़ने की आदत से दूर हो चुके हैं, जिससे बच्चों को प्रेरणा नहीं मिलती। स्कूल का होमवर्क भी इसमें बड़ी बाधा है। रिपोर्ट के आंकडों के अनुसार 41 प्रतिशत माता-पिता ही रोज अपने चार साल तक के बच्चों को कहानी सुनाते हैं। जबकि 2012 में यह आंकड़ा 64 प्रतिशत था। 28 प्रतिशत जेन जेड माता-पिता पढ़ने को एक मजेदार गतिविधि नहीं मानते। बच्चों की सोशल मीडिया चैनल्स पर उपस्थिति उन्हें वास्तविक जीवन से दूर करके वर्चुअल दुनिया में ले जा रही है। जहां दिखावटीपन एवं नकारात्मकता की भरमार है। इससे बच्चों का बचपन तो छिन ही रहा है, उनका मानसिक एवं शारीरिक विकास भी अवरुद्ध हो रहा है। सोशल मीडिया यानी यूट्यूब-इंस्टा, अन्य सोशल साइट की लत बच्चों को वास्तविक दुनिया से दूर कर रही है और उनकी एकाग्रता, याददाश्त और ध्यान की क्षमता को कम करके उन्हें अपंग, बीमार एवं हिंसक बना रही है। बच्चे अपने प्रश्नों का हल या समस्या का निवारण किताबों में ढूँढकर पढ़ने के बजाय केवल मोबाइल पर ढूँढने के आदी होते जा रहे हैं जो उचित नहीं है। मोबाइल और साइबर एडिक्शन अब एक गम्भीर समस्या बनती जा रही है जो बच्चों की दिनचर्या पर बुरा असर डाल रही है। इससे मानसिक विचलन और चिड़चिड़ापन बढ़ता जा रहा है कि हम छोटी छोटी बातों पर घर-परिवार के सदस्यों पर गुस्सा करने लग गये हैं।मोबाइल आपके बच्चे से उसका बचपन ही नहीं छीन रहा है बल्कि उसे हिंसक भी बना रहा है। हरियाणा में 9 साल के एक बच्चे को इसकी इतनी बुरी लत थी कि उसने स्मार्टफोन छीने जाने की वजह से अपना हाथ काटने की कोशिश की। मोबाइल की लत का ये इकलौता मामला नहीं है। 12 साल का अविनाश मोबाइल के बिना एक पल नहीं रह सकता। उससे अगर मोबाइल छीन लिया जाये तो वो गुस्से में आ जाता है। ऐसी ही लत है भोपाल यूनिवर्सिटी की प्रिया को। उसे व्हाट्सऐप की ऐसी लत लगी कि वह पूरी रात जगी रह जाती है। अब वह इस लत से छुटकारा पाने के लिए मानसिक अस्पताल में काउन्सलिंग ले रही है। मोबाइल की लत से बच्चे आपराधिक भी होते जा रहे हैं और गलत कदम तक उठा रहे हैं। अभी हाल ही में ग्रेटर नोएडा में एक 16

Jun 11, 2025 - 18:39
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सोशल मीडिया बच्चों को हिंसक एवं बीमार बना रहा है
सोशल मीडिया बच्चों को हिंसक एवं बीमार बना रहा है

सोशल मीडिया बच्चों को हिंसक एवं बीमार बना रहा है

सोशल मीडिया के बढ़ते उपयोग से बच्चों का बचपन न केवल प्रभावित हो रहा है, बल्कि बीमार, हिंसक एवं आपराधिक भी हो रहा है। यह चिंताजनक एवं चुनौतीपूर्ण है। विशेषज्ञों का मानना है कि यह बच्चों को समय के प्रति, परिवार एवं सामाजिक कौशल के प्रति और मानसिक स्वास्थ्य के प्रति नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकता है।

यह सामाजिक जहर बच्चों की बाल-सुलभ क्रीड़ाओं को नहीं सिर्फ क्षति पहुंचा रहा है, बल्कि दादी-नानी की कहानियों से भी वंचित कर रहा है। ऑनलाइन गेम्स और सोशल मीडिया के कारण बच्चे एक ऐसे आभासी जगत में फंसते जा रहे हैं जो उन्हें वास्तविक जीवन से दूर करता है। हरियाणा में एक नौ वर्षीय बच्चे ने स्मार्टफोन छीने जाने के कारण आत्महत्या करने की कोशिश की, यह सिर्फ एक मामला है, ऐसे मामलों की संख्या तेजी से बढ़ रही है।

सोशल मीडिया का बढ़ता प्रभाव

टेन के हार्परकॉलिन्स और नीलसन आईक्यू की एक अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट में चिंताजनक तथ्य सामने आए हैं कि बड़ी संख्या में युवा माता-पिता कहानियों की बजाय डिजिटल मनोरंजन को प्राथमिकता दे रहे हैं। पंचतंत्र से लेकर स्नो व्हाइट की कहानियाँ अब शेल्फ पर धूल फांक रही हैं। यह रिपोर्ट इस बात का संकेत है कि डिजिटल मनोरंजन बच्चों के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

पारिवारिक संरचना में बदलाव

बीते दशक में शहरीकरण और पारिवारिक संरचना के बदलावों ने भी इस समस्या को बढ़ाया है। संयुक्त परिवारों की जगह एकल परिवारों ने ले ली है, जहां दादी-नानी जैसी कहानी सुनाने वाली महत्वपूर्ण कड़ी गायब हो गई है। नई पीढ़ी के माता-पिता भी खुद ही पढ़ने की आदत से दूर हो चुके हैं। इसके परिणामस्वरूप, बच्चे अब पढ़ाई और मनोरंजन को एक गंभीर जिम्मेदारी मानने लगे हैं।

रिपोर्ट के आंकड़ों के अनुसार, केवल 41 प्रतिशत माता-पिता ही रोज अपने चार साल तक के बच्चों को कहानी सुनाते हैं। जब बच्चे किताबों और खेलकूद के मैदानों से दूर होते जा रहे हैं, तो स्क्रीन की नीली रोशनी उनकी आंखों और मानसिक स्वास्थ्य पर अत्यधिक बुरा असर डाल रही है।

एक्शन लेने का समय

बच्चों को सामाजिक मीडिया का उपयोग करने के बारे में सही जानकारी देना और उन्हें इसके नकारात्मक प्रभावों से बचाना अनिवार्य हो गया है। परिवार और समाज को जागरूकता अभियान चलाने चाहिए। माता-पिता को चाहिए कि वे बच्चों को खेल, कला, और अन्य रचनात्मक गतिविधियों में शामिल होने के लिए प्रेरित करें।

सोशल मीडिया कंपनियों को भी इस मामले में अपना दायित्व समझना होगा। मानसिक स्वास्थ्य से खेल रहे इस जहर को खत्म करने के लिए उनके पास पहले से ही उपाय हैं, लेकिन मुनाफे की सोच ने उन्हें आगे बढ़ने से रोक रखा है।

कुल मिलाकर, अगर हम इस समस्या का समाधान नहीं निकाल पाए, तो आने वाली पीढ़ी को गंभीर मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है, जो उनके विकास और भविष्य के लिए बेहद हानिकारक होगी।

- ललित गर्ग

लेखक, पत्रकार, स्तंभकार

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Keywords:

social media, children, health issues, violence, parenting, family structure, digital entertainment, childhood development, mental health, addiction

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