उत्तराखंड सतर्कता विभाग: आत्म-प्रशंसा के खोखले दावे और जांच की दूषित कार्यशैली

यह लेख विजिलेंस विभाग की उन गहरी कमियों और प्रणालीगत खामियों का विश्लेषण करता है, जो उसके गौरवशाली दावों के पीछे छिपी हैं। यह विभाग के अधिकारियों की मनमानी, पारदर्शिता की कमी, अदालती आदेशों की अवहेलना और उन निर्दोष लोगों की दुर्दशा पर प्रकाश डालता है जिन्हें बिना किसी उचित सबूत के फंसाया गया है।

Aug 20, 2025 - 06:37
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उत्तराखंड सतर्कता विभाग: आत्म-प्रशंसा के खोखले दावे और जांच की दूषित कार्यशैली
यह लेख विजिलेंस विभाग की उन गहरी कमियों और प्रणालीगत खामियों का विश्लेषण करता है, जो उसके गौरवशाली दावों के पीछे छिपी हैं। यह विभाग के अधिकारियों की मनमानी, पारदर्शिता की कमी, अदालती आदेशों की अवहेलना और उन निर्दोष लोगों की दुर्दशा पर प्रकाश डालता है जिन्हें बिना किसी उचित सबूत के फंसाया गया है।

परिचय: कोर्ट की फटकार, जनता का विश्वास और खोखले दावों का पर्दाफाश

उत्तराखंड का सतर्कता अधिष्ठान (विजिलेंस डिपार्टमेंट) इन दिनों अपनी ही पीठ थपथपाने में व्यस्त है, जबकि उसकी कार्यप्रणाली पर नैनीताल उच्च न्यायालय से लेकर आम जनता तक गंभीर सवाल उठ रहे हैं। विभाग ने हाल ही में दावा किया है कि उसने अपनी जांच प्रक्रिया में एक ऐतिहासिक बदलाव किया है, जिसके तहत अब रिश्वतखोरों पर पहले मुकदमा दर्ज किया जाएगा और फिर गिरफ्तारी होगी। इस दावे को देश में एक 'नया कीर्तिमान' बताकर प्रचारित किया जा रहा है, लेकिन वास्तविकता यह है कि यह बदलाव विजिलेंस की अपनी पहल नहीं, बल्कि माननीय उच्च न्यायालय की कड़ी फटकार और निर्देशों का सीधा परिणाम है।

1. उच्च न्यायालय की फटकार: कार्यशैली में सुधार का दबाव

नैनीताल उच्च न्यायालय ने कई बार विजिलेंस विभाग की जांच की गुणवत्ता पर सवाल उठाए हैं। माननीय न्यायाधीश थापलियाल की पीठ ने स्पष्ट रूप से यह टिप्पणी की थी कि विजिलेंस अधिकारी बिना किसी ठोस प्रमाण के और 'डिमांड' यानी रिश्वत की मांग के सबूत के बिना ही व्यक्तियों को गिरफ्तार कर रहे हैं। इन मामलों में विभाग ने अपनी मनमानी दिखाते हुए न केवल लोगों के सम्मान को ठेस पहुंचाई, बल्कि न्याय प्रक्रिया का भी दुरुपयोग किया।

  • बिना 'डिमांड' के गिरफ्तारी: कई मामलों में विजिलेंस ने केवल रिश्वत लेते हुए रंगे हाथों पकड़ने का दावा किया, लेकिन इस बात का कोई सबूत पेश नहीं किया कि आरोपी ने रिश्वत की मांग पहले से की थी। यह जांच का एक मूलभूत सिद्धांत है कि 'डिमांड' और 'एक्सेप्टेंस' (स्वीकार) दोनों ही भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत अपराध को साबित करने के लिए आवश्यक हैं। विजिलेंस के पास इस महत्वपूर्ण कड़ी का अभाव था।

  • दोषपूर्ण जांच रिपोर्ट: उच्च न्यायालय ने विजिलेंस द्वारा प्रस्तुत की गई जांच रिपोर्टों को त्रुटिपूर्ण और अधूरा पाया है। कई बार ये रिपोर्टें कमजोर साक्ष्यों पर आधारित थीं, जिसके कारण आरोपियों को बाद में अदालत से राहत मिल गई। यह विजिलेंस की जांच की कमजोरी को दर्शाता है, जो भ्रष्टाचार के मामलों में ठोस सबूत इकट्ठा करने में विफल रहती है।

2. पारदर्शिता का अभाव और मनमाना व्यवहार

उत्तराखंड विजिलेंस विभाग की कार्यप्रणाली में पारदर्शिता की भारी कमी है। विभाग के अधिकारी अक्सर अपने तरीके से काम करते हैं, बिना किसी स्पष्ट मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) का पालन किए।

  • 'एसओपी' का उल्लंघन: विभाग के पास भ्रष्टाचार के मामलों की जांच के लिए कोई स्पष्ट और सार्वजनिक रूप से घोषित एसओपी नहीं है। यह अधिकारियों को मनमाने ढंग से कार्य करने की छूट देता है, जिससे जांच प्रक्रिया निष्पक्ष और जवाबदेह नहीं रह पाती। कई बार, जांच के दौरान सबूतों को कमजोर करने या गलत तरीके से पेश करने के आरोप भी लगे हैं।

  • चयनित कार्रवाई के आरोप: विजिलेंस पर अक्सर यह आरोप लगता है कि वह केवल छोटे अधिकारियों को ही निशाना बनाती है, जबकि बड़े और प्रभावशाली लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने से कतराती है। यह संदेह पैदा करता है कि विभाग राजनीतिक दबाव या निहित स्वार्थों के तहत काम कर रहा है।

3. निर्दोषों को फंसाने की साजिश और उनकी दुर्दशा

विजिलेंस की मनमानी कार्यशैली का सबसे बड़ा शिकार वे लोग होते हैं, जिन्हें बिना किसी ठोस सबूत के फंसा दिया जाता है। ऐसे कई मामले सामने आए हैं जहां निर्दोष व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया और उन्हें वर्षों तक अदालती लड़ाई लड़नी पड़ी, जिससे उनका करियर और सामाजिक प्रतिष्ठा पूरी तरह से बर्बाद हो गई।

  • विजिलेंस हल्द्वानी और देहरादून के मामले: विजिलेंस हल्द्वानी और देहरादून के सेक्टरों में ऐसे कई मामले दर्ज हैं, जहां 'फ्रॉड अधिकारियों' ने साक्ष्य की कमी के बावजूद लोगों को गिरफ्तार किया। इन मामलों में, अदालत ने बाद में आरोपियों को बरी कर दिया, लेकिन तब तक उनके जीवन में अपूरणीय क्षति हो चुकी थी। यह दिखाता है कि विभाग के कुछ अधिकारी अपनी वाहवाही के लिए 'टारगेट' पूरा करने पर ज्यादा ध्यान देते हैं, बजाय इसके कि वे निष्पक्ष जांच करें।

  • फर्जी शिकायतों पर कार्रवाई: कई मामलों में यह भी सामने आया है कि विजिलेंस विभाग फर्जी या द्वेषपूर्ण शिकायतों पर तुरंत कार्रवाई कर देता है। ये शिकायतें अक्सर व्यक्तिगत दुश्मनी या ब्लैकमेलिंग के उद्देश्य से की जाती हैं। विभाग बिना पर्याप्त प्रारंभिक जांच के ही ऐसे मामलों में कूद पड़ता है, जिससे निर्दोष लोग अनावश्यक रूप से परेशान होते हैं।

4. आत्म-प्रशंसा में डूबा 'निकम्मा विभाग'

हाल ही में विजिलेंस विभाग का यह दावा कि उसने अपनी कार्यशैली में सुधार कर लिया है, एक हास्यास्पद प्रयास है। जिस विभाग को अदालत ने अपनी गलतियों के लिए फटकार लगाई, वही अब उन गलतियों को सुधारने को अपनी उपलब्धि बता रहा है।

  • खुद को 'मियाँ मिट्ठू' बनाना: यह विजिलेंस की हताशा को दिखाता है कि वह अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए प्रचार का सहारा ले रहा है। खुद को 'देश का पहला राज्य' बताकर वह जनता की नजरों में अपनी छवि चमकाने की कोशिश कर रहा है, जबकि असलियत यह है कि यह एक कानूनी मजबूरी है, कोई क्रांतिकारी बदलाव नहीं।

  • 'यूजलेस डिपार्टमेंट' की उपाधि: कई कानूनी विशेषज्ञों और नागरिकों ने विजिलेंस को 'यूजलेस डिपार्टमेंट' की संज्ञा दी है, क्योंकि यह भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म करने के बजाय केवल दिखावे की कार्रवाई में लगा हुआ है। इस विभाग में ऐसे कई अधिकारी हैं जिन पर खुद भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं, लेकिन उनके खिलाफ कोई कड़ी कार्रवाई नहीं की गई।

निष्कर्ष

उत्तराखंड विजिलेंस विभाग को यह समझना होगा कि केवल प्रेस नोट जारी करने और झूठे दावे करने से उसकी विश्वसनीयता बहाल नहीं होगी। उसे अपनी कार्यप्रणाली में मूलभूत सुधार करने होंगे। यह विभाग तभी सफल होगा जब वह निष्पक्ष, पारदर्शी और कानून के अनुसार काम करेगा। उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि किसी भी निर्दोष को फंसाया न जाए और किसी भी दोषी को बख्शा न जाए। जब तक विजिलेंस अपनी पीठ थपथपाना बंद नहीं करता और अपनी जिम्मेदारियों को ईमानदारी से नहीं निभाता, तब तक वह भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में एक बड़ा रोड़ा बना रहेगा।

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