लू से 700 मौतें हो गई, राजनीतिक दलों ने उफ तक नहीं की
देश में आम लोगों की जिन्दगी कोई मोल नहीं है। कम से कम सरकारों और राजनीतिक दलों की नजर में तो बिल्कुल नजर नहीं आता। मुद्दा यदि वोट बैंक से जुड़ा हुआ हो, तभी राजनीतिक दल कुछ गंभीरता बेशक दिखा लें किन्तु लोगों के जीवन-मरण जैसे मुद्दों से लगता यही है कि उनका कोई सरोकार नहीं रह गया है। यदि ऐसा नहीं होता तो अदालतों को मौसम की मार से होने वाली मौतें रोकने के लिए सरकारों को दिशा-निर्देश नहीं देने पड़ते। आश्चर्य की बात यह है कि प्रतिकूल मौसम से आम लोगों को बचाने की जिम्मेदारी केंद्र और राज्यों की सरकारों की है, किन्तु यह काम भी अब अदालतों को करना पड़ रहा है। इससे सवाल खड़ा होता है कि आखिर सरकारों की जरूरत कितनी सीमित रह गई है। हीटवेव से 700 से ज्यादा मौतों के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से जवाब मांगा है। शीर्ष अदालत ने पूछा है कि इतने बड़े मौसमी संकट से निपटने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर क्या तैयारी की जा रही है। प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने गृह मंत्रालय, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण और अन्य को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है। यह याचिका पर्यावरण कार्यकर्ता विक्रांत तोंगड़ ने दाखिल की। उन्होंने कोर्ट से गुजारिश की है कि सरकार को गर्मी की चेतावनी देने वाली प्रणाली, हीटवेव की पहले से जानकारी देने की व्यवस्था, और 24 घंटे काम करने वाली राहत हेल्पलाइन जैसी सुविधाएं लागू करने के निर्देश दिए जाएं। इसे भी पढ़ें: World Environment Day 2025: विकास की अंधी दौड़ और प्रकृति का विनाशयाचिका में यह भी बताया गया है कि 2019 में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने हीटवेव से निपटने के लिए राष्ट्रीय दिशानिर्देश जारी किए थे, लेकिन कई राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने अब तक उस पर काम ही नहीं किया। याचिका में यह भी जिक्र है कि आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 की धारा 35 के अनुसार केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है कि वह इस तरह की आपदा से निपटने के लिए पुख्ता इंतजाम करे। इससे पहले राजस्थान हाईकोर्ट ने अधिकारियों के रवैये पर गहरी नाराजगी जाहिर करते हुए कहा था कि पिछले साल दिए गए अदालत के निर्देशों को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। कोर्ट ने कहा कि यह कानून के शासन पर सवाल उठाता है। अधिकारी स्वयं को कानून से ऊपर मान रहे हैँ, लेकिन कोर्ट आंख बंद करके नहीं बैठ सकता। इंसानों से जानवरों जैसा बर्ताव नहीं हो सकता और न जान बचाने के लिए धन की कमी का बहाना चल सकता। कोर्ट ने मुख्य सचिव से अदालती आदेशों की पालना के लिए समन्वय समिति बनाने और लू से बचाव के लिए कार्ययोजना बनाने का निर्देश दिया, वहीं केन्द्रीय गृह मंत्रालय, मुख्य सचिव व राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण तथा केन्द्र व राज्य सरकार के 10 अधिकारियों को नोटिस जारी कर जवाब मांगा। मई के पहले सप्ताह में राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने देश के उत्तरी, मध्य और पश्चिमी भागों में गर्मियों के दौरान पडऩे वाली लू के मद्देनजर 11 राज्यों से कहा है कि वे कमजोर लोगों, खासकर आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों, बाहरी कामगारों, वरिष्ठ नागरिकों, बच्चों और बेघर लोगों की सुरक्षा के लिए तत्काल एहतियाती कदम उठाएं, जो पर्याप्त आश्रय और संसाधनों की कमी के कारण जोखिम में हैं। वर्ष 2018 से 2022 के बीच गर्मी और लू के कारण 3,798 लोगों की मौत के बारे में एनसीआरबी के आंकड़ों पर प्रकाश डालते हुए आयोग ने एकीकृत और समावेशी उपायों की तत्काल आवश्यकता पर जोर दिया है। आयोग ने पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र और राजस्थान के मुख्य सचिवों को लिखे पत्र में आश्रयों की व्यवस्था, राहत सामग्री की आपूर्ति, कार्य घंटों में संशोधन और गर्मी से संबंधित बीमारियों के इलाज के लिए मानक प्रक्रियाओं की उपलब्धता की मांग की है। भारत में वर्ष 2001 से 2019 के बीच हीटवेव यानी लू से करीब 20,000 लोगों की मौत हुई है। एक अध्ययन में यह खुलासा हुआ कि पुरुषों में लू से होने वाली मौतों की आशंका ज्यादा पाई गई। एक और हालिया अध्ययन में यह बताया गया है कि हीटवेव से होने वाली मौतें जातीय आधार पर भी बंटी हुई हैं। भारत में हाशिए पर मौजूद समुदायों से ताल्लुक रखने वाले लोगों की मौतें, अन्य समुदायों की तुलना में, लू से कहीं ज्यादा हुईं। अध्ययन करने वाले शोधकर्ताओं का कहना है कि यह एक तरह की 'थर्मल इनजस्टिस' (गर्मी से जुड़ा अन्याय) की स्थिति है। संयुक्त राष्ट्र के इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की 2021 की एक रिपोर्ट जैसी कई रिपोर्टों ने चेतावनी दी है कि भारत समेत एशिया के कई हिस्सों में आने वाले वर्षों में और भी एक्स्ट्रीम वेदर इवेंट्स, जैसे कि हीटवेव, देखने को मिलेंगी। हर साल गर्मी के रिकॉर्ड टूटते जा रहे हैं। भारत के मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार, फरवरी 2025 भारत में बीते 125 वर्षों में सबसे गर्म फरवरी का महीना रहा है। टीम ने पाया कि 2001 से 2019 के बीच भारत में हीटस्ट्रोक से 19,693 मौतें और अत्यधिक ठंड से 15,197 मौतें दर्ज की गईं। हालांकि, यह संख्या असल आंकड़ों से कम हो सकती है क्योंकि अत्यधिक तापमान के संपर्क में आने से होने वाली मौतों की रिपोर्टिंग पर्याप्त रूप से नहीं होती। यह बात 29 अप्रैल को प्रकाशित एक अध्ययन में कही गई है, जो वैज्ञानिक पत्रिका 'टेम्परेचर' में प्रकाशित हुआ। अध्ययन में यह भी पाया गया कि हीटस्ट्रोक से मरने वालों में पुरुषों की संख्या अधिक थी; इस अवधि में महिलाओं की तुलना में पुरुषों की मौतें तीन से पांच गुना ज़्यादा थीं। इतना ही नहीं लू जैसी आपदा के अलावा बाढ़, अतिवृष्टि और बिजली गिरने जैसी आपदाओं में हर साल हजारों लोग काल कलवित हो जाते हैं। ऐसे मुद्दे राजनीतिक दलों के एजेंडे में शामिल नहीं हैं। कोई भी राजनीतिक दल घोषणा करना तो दूर बल्कि यह दावा तक नहीं करता कि किसी भी व्यक्ति की मौत ऐसे प्

लू से 700 मौतें हो गई, राजनीतिक दलों ने उफ तक नहीं की
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दुनिया की सबसे बड़ी लोकतंत्र में, आम लोगों की जीवन की वास्तविकता कुछ और ही है। सर्दी, गर्मी, या बारिश, इनमें से कोई भी मौसम आम जीवन के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण साबित हो सकता है। हाल ही में, भारत में लू के कारण 700 से अधिक निर्दोष लोगों की मौत हो गई है, लेकिन राजनीतिक दलों के लिए यह विषय अब तक की सबसे कम प्राथमिकता वाला बन चुका है। इस पर कोई गंभीर चर्चा नहीं हुई है, और ऐसा प्रतीत होता है कि सरकारों और राजनीतिक पार्टियों के लिए मानव जीवन की कोई अहमियत नहीं रह गई है।
सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप
इस संकट को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से जवाब मांगा है। प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने विभिन्न मंत्रालयों को नोटिस जारी कर पूछा कि आपातकालीन स्थिति के इस मौसमीय संकट से निपटने के लिए क्या तैयारियां की जा रही हैं। याचिका में पर्यावरण कार्यकर्ता विक्रांत तोंगड़ ने अदालत से यह निवेदन किया है कि सरकार हीटवेव की चेतावनी प्रणाली, राहत हेल्पलाइन जैसी सुविधाओं को लागू करे।
संवेदनहीनता की पराकाष्ठा
यह अत्यंत दुखद है कि राजनीतिक दलों ने इस गंभीर मुद्दे पर अपनी चुप्पी तोड़ी तक नहीं है। जब तक मुद्दा वोट बैंक से जुड़ा होता है, तब तक ही राजनीति में गंभीरता दिखती है। ऐसा लगता है कि सरकारें और राजनीतिक दल आम लोगों के जीवन और मौत की परिस्थितियों से मुंह मोड़ लिया है। यदि ऐसा नहीं होता तो अदालतों को सरकारों को दिशा-निर्देश देने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन की ज़िम्मेदारी
2019 में हीटवेव से निपटने के लिए राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने दिशानिर्देश जारी किए थे, लेकिन कई राज्यों ने इनमें से किसी पर भी ध्यान नहीं दिया। याचिका में उल्लेख किया गया है कि इस अधिनियम के तहत राज्यों का दायित्व है कि वे इस संकट से निपटने के लिए पुख्ता इंतजाम करें। एनएचआरसी ने भी इस सम्बन्ध में देशों में आवश्यक कदम उठाने के निर्देश दिए हैं, हालांकि इसका भी कोई असर होता नहीं दिख रहा है।
गर्मी के बढ़ते मामलों के लिए चेतावनी
भारत में वर्ष 2001 से 2019 के बीच लू के कारण लगभग 20,000 मौतें हो चुकी हैं। अध्ययन बताते हैं कि लू से होने वाली मौतें आमतौर पर हाशिए पर मौजूद समुदायों में कहीं ज़्यादा होती हैं। इस संदर्भ में 'थर्मल इनजस्टिस' की स्थिति देखने को मिल रही है। खासतौर पर तब, जब मौसम से संबंधित ऐसी आपदाओं का कोई ठोस प्रबंधन नहीं हो रहा है।
भविष्य के लिए आवश्यक कदम
स्वास्थ्य और मानव अधिकारों के चिकित्सकों की नज़र में यह सभी घटनाएँ हमारे समाज की भीतरी असमानताओं और असुरक्षाओं को उजागर करती हैं। ये घटनाएँ दर्शाती हैं कि किस तरह ऐसे मुद्दे राजनीतिक संरचना और सिस्टम के अंदर दिए गए स्थान से बाहर होते जा रहे हैं। वास्तव में, इसे सत्ताधारी दलों और सरकारी तंत्र पर निजी दबाव के माध्यम से पहल कर सही दिशा में ले जाना आवश्यक है।
निष्कर्ष
अंत में, यह स्पष्ट है कि जब तक राजनीतिक दल लू से होने वाली मौतों को अपने एजेंडे में नहीं डालते, तब तक ऐसी घटनाएँ भविष्य में भी होती रहेंगी। सत्तारूढ़ दलों और अधिकारी वर्गों के बीच संवाद न होने पर, राष्ट्र के स्वास्थ्य और सुरक्षा की जिम्मेदारी हमारी अदालतों पर आ जाती है। यदि किसी राजनीतिक दल को इस दिशा में कुछ कार्रवाई करनी होती, तो यह अधिक जनहितकारी हो सकता था। ज़िम्मेदारी केवल राजनीति की नहीं, बल्कि हमारी सामूहिक है।
- प्रियंका शर्मा
- स्नेहा वाधवानी
- ज्योति गुप्ता
टीम haqiqatkyahai
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