संथाल हूल की 170वीं वर्षगांठ पर नमन: आजादी की पहली जनक्रांति के शूरवीरों को श्रद्धांजलि
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संथाल हूल की 170वीं वर्षगांठ पर नमन: आजादी की पहली जनक्रांति के शूरवीरों को श्रद्धांजलि
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रांची/साहेबगंज: आजादी की पहली जनक्रांति संथाल हूल की 170वीं वर्षगांठ के अवसर पर देशभर में वीर शहीद सिदो-कान्हू, चांद, भैरव और हज़ारों संथाल योद्धाओं को श्रद्धांजलि अर्पित की जा रही है। 30 जून 1855 को झारखंड के संथाल परगना की पावन धरती पर अंग्रेजी हुकूमत और जमींदारी व्यवस्था के खिलाफ उठी इस क्रांति की ज्वाला ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था।
संथाल विद्रोह का इतिहास
इस ऐतिहासिक जन विद्रोह का नेतृत्व किया था भगनाडीह गांव के भूमिहीन ग्राम प्रधान चुन्नी मांडी के चार बेटों सिद्धू, कान्हू, चांद और भैरव ने। इन चारों भाइयों ने हजारों आदिवासियों को संगठित कर ब्रिटिश शासन और उसके दलाल जमींदारों-साहूकारों के खिलाफ ‘करो या मरो’ का उद्घोष किया। सिद्धू मुर्मू के आह्वान पर उठे आदिवासी वीरों ने तीर-कमान और लाठियों से लैस होकर उन्नत हथियारों से लैस अंग्रेजों की सेनाओं से लोहा लिया।
संथाल विद्रोह का महत्व
संथाल विद्रोह केवल एक हथियारबंद संघर्ष नहीं था, यह अपनी ज़मीन, संस्कृति, अस्मिता और अधिकारों की रक्षा का संग्राम था। विद्रोहियों ने कई ज़मींदारों और महाजनों के अत्याचारों का अंत किया। अंग्रेज हुकूमत के दफ्तरों में तोड़फोड़ कर अंग्रेजी शासन को खुली चुनौती दी। यह लड़ाई कुछ ही महीनों तक चली लेकिन इसका असर इतना गहरा था कि इसे भारत का पहला संगठित स्वतंत्रता संग्राम माना गया। इस विद्रोह में लगभग 20 हज़ार संथाल आदिवासी शहीद हुए। इसने ही 1857 की क्रांति की पृष्ठभूमि तैयार की।
आज के संदर्भ में संथाल हूल
संथाल समुदाय पर किए गए शोषण की दास्तान आज भी दिल दहला देती है। जमींदारों और महाजनों से जबरन वसूली, कर्ज़ के बदले ज़मीन की छीना-झपटी, बंधुआगिरी और उत्पीड़न। अंग्रेजों, ज़मींदारों और महाजनों के इस त्रिकोणीय गठजोड़ ने वनवासियों को हर मोर्चे पर कुचला। आज जब हम संथाल हूल की 170वीं वर्षगांठ मना रहे हैं, यह केवल एक इतिहास को याद करना नहीं है, बल्कि संथालों की उस चेतना को सलाम करना है जो अन्याय के खिलाफ खड़ी हुई।
श्रद्धांजलि समारोह
स्वतंत्रता आंदोलन यादगार समिति के प्रतिनिधि प्रशांत सी बाजपेयी ने कहा, “हम वीर सिदो-कान्हू और उनके साथियों को नमन करते हैं। उनका संघर्ष हमें यह संकल्प देता है कि हम आज भी अपने हक और सम्मान की लड़ाई पूरी ताकत से लड़ेंगे। झारखंड की यह धरती आज भी हमें वह चेतना देती है जो हर शोषण और अन्याय के खिलाफ खड़ा होना सिखाती है। आज इस अवसर पर झारखंड समेत देश के विभिन्न हिस्सों में श्रद्धांजलि सभाएं, पद यात्राएं और स्मृति आयोजनों का आयोजन किया गया।”
निष्कर्ष
संथाल हूल की 170वीं वर्षगांठ हमें इस बात की याद दिलाती है कि सत्य और न्याय के लिए लड़ाई कभी खत्म नहीं होती। यह विद्रोह आज भी भारत के आदिवासी समुदायों के लिए प्रेरणा का प्रतीक है, जो हमें यह समझाता है कि संगठित होकर ही हम अपने अधिकारों की रक्षा कर सकते हैं।
लेखक: प्रिया शर्मा, राधिका देसाई, टीम haqiqatkyahai
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