क्या सुप्रीम कोर्ट के नहले पर राष्ट्रपति के दहले से निकल पाएगा कोई सर्वमान्य हल, लोग हुए उत्सुक?
भारत में विधायिका-कार्यपालिका बनाम न्यायपालिका का टकराव अब कम होने का नाम ही नहीं ले रहा है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट की ओर से तमिलनाडु सरकार बनाम राज्यपाल मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा विधेयक पर फैसला लेने की समयसीमा तय किए जाने पर पहले तो उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ द्वारा कोर्ट के फैसले पर आपत्ति जताई गई, वहीं अब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर कतिपय महत्वपूर्ण सवाल उठाए हैं, जिनका जवाब सर्वोच्च न्यायालय को देना चाहिए। बता दें कि समयसीमा तय किए जाने पर राष्ट्रपति ने सवाल उठाते हुए दो टूक शब्दों में कहा है कि संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है! इसलिए सुलगता हुआ सवाल है कि जब कोई प्रावधान ही नहीं है तब इतना बड़ा न्यायिक अतिरेक कैसे सामने आया जिससे भारत की कार्यपालिका और विधायिका में भूचाल आ गया।बता दें कि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने गत 8 अप्रैल 2025 को दिए गए सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर दर्जनाधिक नीतिगत सवाल उठाए हैं। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार बनाम राज्यपाल मामले में आदेश दिया था कि राज्यपालों और राष्ट्रपति को एक तय समय में उनके समक्ष पेश विधेयकों पर फैसला लेना होगा। याद दिला दें कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर काफी हंगामा हुआ था, जो अब भी विभागीय शीत युद्ध के रूप में जारी है। इसी का परिणाम है कि अब राष्ट्रपति ने इस पर आपत्ति जताई है और साफ साफ कहा है कि जब देश के संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, तो फिर सुप्रीम कोर्ट किस आधार पर यह फैसला दे सकता है।इसे भी पढ़ें: गवर्नर-राष्ट्रपति के लिए डेडलाइन बनाने पर मुर्मू के 14 सवाल, कहा- संविधान में ऐसा प्रावधान नहींउल्लेखनीय है कि राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से राज्यपाल की शक्तियों, न्यायिक दखल और समयसीमा तय करने जैसे विषयों पर स्पष्टीकरण मांगा है। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार बनाम राज्यपाल मामले में दिए अपने फैसले में स्पष्ट कहा था कि राज्यपाल के पास कोई वीटो पावर नहीं है। राज्यपाल की ओर से भेजे गए विधेयक पर राष्ट्रपति को तीन महीने के भीतर फैसला लेना होगा। अगर तय समयसीमा में फैसला नहीं लिया जाता तो राष्ट्रपति को राज्य को इसकी वाजिब वजह बतानी होगी। यही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी कहा था कि राष्ट्रपति किसी विधेयक को पुनर्विचार के लिए राज्य विधानसभा के पास वापस भेज सकते हैं। वहीं यदि विधानसभा उस विधेयक को फिर से पारित करती है तो राष्ट्रपति को उस पर अंतिम फैसला लेना होगा।सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा था कि अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति के फैसले की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है। अगर राज्यपाल ने मंत्रिपरिषद की सलाह के खिलाफ जाकर फैसला लिया है तो सुप्रीम कोर्ट के पास उस विधेयक को कानूनी रूप से जांचने का अधिकार होगा। यही वजह है कि राष्ट्रपति श्रीमती मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से पूछे 14 सवाल पूछे हैं, जो इस प्रकार हैं- पहला, राज्यपाल के समक्ष अगर कोई विधेयक पेश किया जाता है तो संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत उनके पास क्या विकल्प हैं? दूसरा, क्या राज्यपाल इन विकल्पों पर विचार करते समय मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे हैं? तीसरा, क्या अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल द्वारा लिए गए फैसले की न्यायिक समीक्षा हो सकती है? चतुर्थ, क्या अनुच्छेद 361 राज्यपाल द्वारा अनुच्छेद 200 के तहत लिए गए फैसलों पर न्यायिक समीक्षा को पूरी तरह से रोक सकता है? पांचवां, क्या अदालतें राज्यपाल द्वारा अनुच्छेद 200 के तहत लिए गए फैसलों की समयसीमा तय कर सकती हैं, जबकि संविधान में ऐसी कोई समयसीमा तय नहीं की गई है? छठा, क्या अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा लिए गए फैसले की समीक्षा हो सकती है? सातवाँ, क्या अदालतें अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा फैसला लेने की समयसीमा तय कर सकती हैं? आठवां, अगर राज्यपाल ने विधेयक को फैसले के लिए सुरक्षित रख लिया है तो क्या अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट को सुप्रीम कोर्ट की सलाह लेनी चाहिए? नवम, क्या राज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा क्रमशः अनुच्छेद 200 और 201 के तहत लिए गए फैसलों पर अदालतें लागू होने से पहले सुनवाई कर सकती हैं। दशम, क्या सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 142 के द्वारा राष्ट्रपति और राज्यपाल की संवैधानिक शक्तियों में बदलाव कर सकता है? ग्यारह, क्या अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल की मंजूरी के बिना राज्य सरकार कानून लागू कर सकती है? बारह, क्या सुप्रीम कोर्ट की कोई पीठ अनुच्छेद 145(3) के तहत संविधान की व्याख्या से जुड़े मामलों को सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच को भेजने पर फैसला कर सकती है? तेरह, क्या सुप्रीम कोर्ट ऐसे निर्देश/आदेश दे सकता है जो संविधान या वर्तमान कानूनों मेल न खाता हो? चौदह, क्या अनुच्छेद 131 के तहत संविधान इसकी इजाजत देता है कि केंद्र और राज्य सरकार के बीच विवाद सिर्फ सुप्रीम कोर्ट ही सुलझा सकता है?दरअसल, ये ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब देने में सुप्रीम कोर्ट को काफी माथापच्ची करनी होगी। क्योंकि ये सवाल उसी नौकरशाही द्वारा तैयार किये गए होंगे, जिसका परोक्ष शिकंजा खुद कोर्ट भी महसूस करता आया है और इससे निकलने के लिए कई बार अपनी छटपटाहट भी नहीं छिपा पाता है। इसलिए सुप्रीम जवाब का इंतजार अब नागरिकों और सरकार दोनों को है, ताकि एक और 'लीगल पोस्टमार्टम' किया जा सके। इसलिए लोगों के जेहन में यह बात उठ रही है कि क्या सुप्रीम कोर्ट के नहले पर राष्ट्रपति के दहले से निकल पाएगा कोई सर्वमान्य हल?- कमलेश पांडेय, वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक

क्या सुप्रीम कोर्ट के नहले पर राष्ट्रपति के दहले से निकल पाएगा कोई सर्वमान्य हल, लोग हुए उत्सुक?
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भारत में विधायिका-कार्यपालिका बनाम न्यायपालिका का टकराव अब कम होने का नाम ही नहीं ले रहा है। जबकि तमिलनाडु सरकार बनाम राज्यपाल मामले में सुप्रीम कोर्ट ने विधेयक पर फैसले लेने की समयसीमा तय की है, उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू जैसे शीर्ष स्तर के अधिकारियों की प्रतिक्रिया ने स्थिति को और जटिल कर दिया है। राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर कतिपय महत्वपूर्ण सवाल उठाए हैं, जिनका उत्तर सर्वोच्च न्यायालय को अवश्य देना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट का आदेश और राष्ट्रपति का सवाल
गौरतलब है कि राष्ट्रपति मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट के 8 अप्रैल 2025 को दिए गए आदेश पर नीतिगत सवाल उठाए हैं। इस आदेश में कहा गया था कि राज्यपालों और राष्ट्रपति को विधेयकों पर निर्णय लेने की एक निश्चित समयसीमा निर्धारित की जानी चाहिए। राष्ट्रपति मुर्मू ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि संविधान में ऐसी कोई प्रावधान नहीं है। प्रश्न यह उठता है कि यदि कोई प्रावधान नहीं है तो न्यायिक अतिरेक कैसे हो सकता है जो कार्यपालिका और विधायिका के बीच भूचाल उत्पन्न कर दे।
राष्ट्रपति के 14 सवाल
राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से 14 महत्वपूर्ण सवाल पूछे हैं, जिनमें शामिल हैं:
- राज्यपाल के समक्ष विधेयक पेश होने पर उनके पास क्या विकल्प हैं?
- क्या राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे होते हैं?
- क्या संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के निर्णय की न्यायिक समीक्षा हो सकती है?
- क्या अनुच्छेद 361 में न्यायिक समीक्षा को रोका जा सकता है?
- क्या अदालतें राज्यपाल द्वारा निर्णय की समयसीमा तय कर सकती हैं?
- क्या अनुच्छेद 201 के अनुसार राष्ट्रपति के फैसले की समीक्षा हो सकती है?
- क्या अदालतें राष्ट्रपति द्वारा निर्णय की समयसीमा तय कर सकती हैं?
इन सवालों के माध्यम से राष्ट्रपति ने संविधान की अस्पष्टता और न्यायिक सक्रियता पर प्रकाश डाला है। इन मुद्दों पर चर्चा करना न केवल न्याय प्रणाली के लिए आवश्यक है, बल्कि यह संविधान में दिए गए शक्तियों और सीमाओं की व्याख्या भी तय करेगा।
न्यायिक सक्रियता और संविधान का महत्व
यह स्थिति सिद्ध करती है कि संविधान के भीतर जिस प्रकार की गुंजाइश है, वह न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है। राष्ट्रपति मुर्मू के सवालों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि सुप्रीम कोर्ट को न केवल अपने फैसलों के पीछे की उचित प्रक्रिया को समझाना होगा, बल्कि इससे संबंधित अन्य संवैधानिक धाराओं की भी व्याख्या करनी होगी।
निष्कर्ष
अंत में, यह कहना उचित होगा कि इस मौजूदा टकराव के समाधान की अपेक्षा में नागरिक और सरकार दोनों की नजरें सुप्रीम कोर्ट की ओर हैं। क्या सुप्रीम कोर्ट, राष्ट्रपति के दहले का सामना कर पाएगा और क्या इससे कोई सर्वमान्य हल निकल पाएगा? यह ऐसे सवाल हैं जिनके उत्तर आने वाले समय में भारत की कानूनी व्यवस्था को प्रभावित कर सकते हैं। नागरिकों को यह देखना है कि कैसे ये संस्थाएँ एक-दूसरे के मौलिक अधिकारों का सम्मान करती हैं।
- कमलेश पांडेय, वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक
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