आखिर बसपा की सियासी दुर्गति के लिए मायावती अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर क्यों थोप रही हैं?

उत्तरप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और बहुजन समाज पार्टी की नेत्री सुश्री मायावती भले ही दलित की बेटी हैं, लेकिन जब दलित राजनीति के रथ पर सवार होकर वह सूबाई सत्ता और पार्टी दोनों के शीर्ष तक पहुंचीं तो दौलत पसंद बन गईं। उन्होंने अपनी सारी नीतियों को दौलत बटोरने के ही इर्दगिर्द केंद्रित कर दिया। जिससे दृढ़ स्वभाव की इस महिला नेत्री ने न केवल अकूत धन बटोरीं, बल्कि अपनी पार्टी को भी खूब आगे बढ़ाया। इस क्रम में उन्होंने जायज-नाजायज का ख्याल तक नहीं रखा। क्योंकि दलित समर्थक एक कानून हमेशा उन जैसों की कानूनी ढाल बन जाता है।हालंकि, वक्त का पाशा पलटते ही अब वही दौलत उन जैसी अविवाहित महिला के गले की फांस बन चुका है। कहना न होगा कि जिस बामसेफ ने देश की दलित राजनीति को एक मजबूत प्रशासनिक आधार दिया, उसकी भी मायावती काल में इसलिए एक न चली, क्योंकि परिवार और पार्टी से आगे की सोच-समझ उनमें विकसित ही न हो पाई। दरअसल, बसपा के संस्थापक मान्यवर कांशीराम के मेहनत से फली-फूली धुर ब्राह्मण विरोधी दलित पार्टी बसपा पर मायावती ने उनके जीते जी ही अपना कब्जा जमा लिया और अपने सहोदर भाई आनंद की मदद से निरंतर मजबूत होती चली गईं, लेकिन जब से उन्होंने सत्ता प्राप्ति की गरज से ब्राह्मणों के प्रति सॉफ्ट कॉर्नर विकसित किया, तब से उन्हें अप्रत्याशित राजनीतिक सफलता तो खूब मिली, लेकिन उनका मूल कैडर इधर उधर छिटकने लगा।इसे भी पढ़ें: Prabhasakshi NewsRoom: भतीजों से क्यों नहीं बनती Mayawati की? पहले Akhilesh Yadav का साथ छोड़ा था अब Akash Anand को पदों से हटा दियाइसके अलावा, जब से समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव से उनकी राजनीतिक प्रतिस्पर्धा भाजपा नेताओं की शह पर तेज हुई, तब से दलित समर्थक ओबीसी भी उनसे छिटकने लगे। वहीं, भाजपा के समर्थन से सत्ता की राजनीति जबसे उन्होंने शुरू की, तब से मुस्लिम वोटर भी बसपा से दूरी बनाने लगे। हालांकि, सत्ता संतुलन के लिए उन्होंने सवर्णों, ओबीसी और अल्पसंख्यक नेताओं को मलाईदार पद दिए, जिससे दलित भी उनसे ईर्ष्या करने लगे। इन सब कारणों से बसपा का जनाधार छीजता चला गया।वहीं, कभी भाजपा, कभी समाजवादी पार्टी, कभी कांग्रेस और कभी अन्य क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन की राजनीति करके उन्होंने खुद को तो मजबूत बनाने की पहल की, लेकिन उनकी अड़ियल और हठी रवैये के चलते उनकी पटरी किसी से नहीं बैठी और अब राजनीतिक मजबूरी वश वह बिल्कुल अकेले बच गई हैं। सवाल है कि तीन बार भाजपा या सपा के सहयोग से और एक बार अपने दम पर हासिल बहुमत से यूपी की मुख्यमंत्री बनने वाली मायावती, केंद्रीय राजनीति में अपने अच्छे-खासे सांसदों के बल पर दबदबा रखने वाली मायावती आखिर इस सियासी दुर्दिन को कैसे प्राप्त हुईं। तो जवाब यही होगा कि एक ओर उनका पारिवारिक प्रेम और दूसरी ओर भावनात्मक रूप से जुड़े नेताओं-कार्यकर्ताओं की मौद्रिक कारणों से उपेक्षा। हालांकि, जब तक वह इस बात को समझ पाई, तबतक बहुत देर हो चुकी है। आज उनके सांसदों और विधायकों की संख्या न के बराबर है। ऐसे में उनके घर में और पार्टी में जो पारिवारिक कोहराम मचा हुआ है, वह कोई नई बात नहीं है। क्षेत्रीय राजनीतिक दलों में ऐसी घटनाएं घटती रहती हैं। हालांकि, यह भी कड़वा सच है कि अपनी जिस जिद्दी स्वभाव के चलते वह सियासत में खूब आगे बढ़ीं, अब उसी जिद्दी स्वभाव के चलते उनकी पार्टी और परिवार दोनों बिखराव के कगार पर है। वहीं, 70 वर्षीय मायावती सूझबूझ से काम लेने के चक्कर में गलतियां पर गलतियां करती जा रही हैं। जिस तरह से वो अपने ही निर्णय को बार बार पलट देती हैं, उससे उनकी सियासी साख भी चौपट हो रही है। इससे सीएम-पीएम बनने का उनका ख्वाब तो चूर हो ही रहा है, लेकिन जोड़-तोड़ से राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति या राज्यपाल बनने या फिर केंद्रीय मंत्री बनने की बची खुची संभावनाएं भी समाप्त होती जा रही हैं।चूंकि देश की दलित राजनीति का यह दुर्भाग्य रहा है कि ओबीसी नेताओं की तरह ही दलित नेता भी एक दूसरे राज्यों के बड़े दलित नेताओं से स्वभाविक समझदारी विकसित नहीं कर पाए और खुद को कमजोर करते चले गए। यूपी में तो मायावती ने दलितों को कद्दावर मुख्यमंत्री दिया, लेकिन बिहार आजतक उससे वंचित है। शायद इसलिए कि भाजपा-कांग्रेस ने अपनी सियासी हितों के लिए इन्हें भी आपस में लड़ाया और अपने इरादे में कामयाब रहे।काश! मायावती भी यह सबकुछ समझ पातीं और तदनुसार निर्णय लेतीं।हाल ही में मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को हटाते हुए उनके ससुर अशोक सिद्धार्थ पर जो निशाना साधा निशाना है, इससे उन्हें लाभ के बजाय और अधिक हानि हो सकती है, क्योंकि ये पार्टी के मजबूत स्तंभ रहे हैं और उनकी हर कमजोरी से वाकिफ हैं। यदि ये विभीषण बन गए तो उनका क्या होगा, सोच-समझ लें तो उचित रहेगा। दरअसल, मायावती ने आकाश आनंद को पार्टी के सभी पदों से हटा दिया है लेकिन इसके लिए उनके ससुर अशोक सिद्धार्थ को ज़िम्मेदार ठहराया है।उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) प्रमुख मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को पार्टी के राष्ट्रीय समन्वयक समेत सभी अहम पदों से हटा दिया और कहा कि अहम फ़ैसले अब वह ख़ुद लेंगी। उन्होंने यह भी कहा है कि जब तक वह ज़िंदा रहेंगी, तब तक उनका कोई उत्तराधिकारी नहीं होगा। बीएसपी सुप्रीमो ने कहा कि उनके लिए पार्टी पहले है और बाकी रिश्ते-नाते बाद में। बता दें कि 2019 में मायावती ने आकाश को पार्टी का राष्ट्रीय समन्वयक बनाया था और अपने छोटे भाई यानी आकाश के पिता आनंद कुमार को बीएसपी का उपाध्यक्ष बनाया था।इसके बाद से ही मायावती पर भाई-भतीजावाद के आरोप लग रहे थे। ऐसे आरोप पार्टी के भीतर और बाहर दोनों जगह लग रहे थे। कई लोग यह भी कहते हैं कि पार्टी के पुराने नेता आकाश आनंद को लेकर बहुत सहज नहीं थे। ऐसे में दिलचस्प है कि अब आकाश आनंद की जगह उनके पिता आनंद कुमार और साथ में रामजी गौतम को राष्ट्रीय समन्वयक नियुक्त किया है। साथ ही अपने भतीजे को सभी अहम पदों से हटाने के फ़

Mar 3, 2025 - 16:39
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आखिर बसपा की सियासी दुर्गति के लिए मायावती अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर क्यों थोप रही हैं?
आखिर बसपा की सियासी दुर्गति के लिए मायावती अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर क्यों थोप रही हैं?

आखिर बसपा की सियासी दुर्गति के लिए मायावती अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर क्यों थोप रही हैं?

Haqiqat Kya Hai - यह सवाल आजकल राजनीतिक चर्चा का केंद्र बना हुआ है। भारतीय राजनीति की मशहूर नेता मायावती, जिन्हें 'भीम शेरनी' के नाम से जाना जाता है, पिछले कुछ समय से बसपा की स्थिति को लेकर आलोचनाओं का सामना कर रही हैं। इस लेख में हम इस मुद्दे को गहराई से समझेंगे। यह लेख नेत्रा नगारि टीम द्वारा प्रस्तुत किया गया है।

मायावती का राजनीतिक सफर

मायावती ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत 1984 में की थी और जल्द ही उन्होंने उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक महत्वपूर्ण स्थान बना लिया। उनकी पार्टी बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का गठन दलितों और पिछड़े वर्गों के लिए किया गया था। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में देखा गया है कि बसपा का राजनीतिक प्रभाव काफी कम हो गया है।

बसपा की सियासी दुर्गति

हाल के चुनावों में बसपा को भारी नुकसान उठाना पड़ा है। पार्टी ने 2017 के विधानसभा चुनावों में केवल 19 सीटें जीती थीं, जबकि इससे पहले 2012 में पार्टी ने 80 सीटों पर जीत हासिल की थी। इस पतन के लिए मायावती ने विभिन्न कारण बताए हैं, जिनमें विपक्ष की रणनीति, समाजवाद, और सत्ता धारी दलों का दुरुपयोग शामिल हैं।

जिम्मेदारी दूसरों पर थोपने का कारण

मायावती का कहना है कि उनकी पार्टी के हार के पीछे कई बाहरी एवं आंतरिक कारण हैं, जिन्हें वे सबसे महत्वपूर्ण मानती हैं। इस पर टिप्पणी करते हुए विशेषज्ञों का मत है कि अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर डालने से पार्टी की स्थिति में सुधार नहीं होने वाला। जब तक पार्टी के नेता अपनी कमजोरियों को नहीं स्वीकार करेंगे, तब तक सुधार संभव नहीं है।

भविष्य की दिशाएँ

यह देखना होगा कि मायावती अपनी पार्टी और खुद को कब और किस तरह से मजबूत बनाने का प्रयास करेंगी। क्या वे अपने पुराने समर्थकों को वापस लाएंगी या नए रणनीतियों पर ध्यान देंगी? यह सवाल अब बसपा के भविष्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।

निष्कर्ष

मायावती की जिम्मेदारी दूसरों पर थोपने की आदत उनके राजनीतिक करियर को प्रभावित कर सकती है। इससे उन्हें आने वाले समय में अपनी छवि और पार्टी के प्रभाव को पुनः स्थापित करने में कठिनाई हो सकती है। इसलिए यह जरूरी है कि वे अपने नेतृत्व और निर्णयों की समीक्षा करें। हकीकत क्या है यह साबित करने का समय आ गया है। अधिक जानकारी के लिए, haqiqatkyahai.com पर जाएं।

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