Hindi Journalism Day 2025: ‘देशहित’ से ही बचेगी पत्रकारिता की साख
‘हिंदुस्थानियों के हित के हेत’ इस उद्देश्य के साथ 30 मई, 1826 को भारत में हिंदी पत्रकारिता की नींव रखी जाती है। पत्रकारिता के अधिष्ठाता देवर्षि नारद के जयंती प्रसंग (वैशाख कृष्ण पक्ष द्वितीया) पर हिंदी के पहले समाचार-पत्र ‘उदंत मार्तंड’ का प्रकाशन होता है। इस सुअवसर पर हिंदी पत्रकारिता का सूत्रपात होने पर संपादक पंडित युगलकिशोर समाचार-पत्र के पहले ही पृष्ठ पर अपनी प्रसन्नता प्रकट करते हुए उदंत मार्तंड का उद्देश्य स्पष्ट करते हैं। आज की तरह लाभ कमाना उस समय की पत्रकारिता का उद्देश्य नहीं था। भारत की स्वतंत्रता से पूर्व प्रकाशित ज्यादातर समाचार-पत्र आजादी के आंदोलन के माध्यम बने। अंग्रेज सरकार के विरुद्ध मुखर रहे। यही रुख उदंत मार्तंड ने अपनाया। अत्यंत कठिनाईयों के बाद भी पंडित युगलकिशोर उदंत मार्तंड का प्रकाशन करते रहे। किंतु, यह संघर्ष लंबा नहीं चला। हिंदी पत्रकारिता के इस बीज की आयु 79 अंक और लगभग डेढ़ वर्ष रही। इस बीज की जीवटता से प्रेरणा लेकर बाद में हिंदी के अन्य समाचार-पत्र प्रारंभ हुए। आज भारत में हिंदी के समाचार-पत्र सबसे अधिक पढ़े जा रहे हैं। प्रसार संख्या की दृष्टि से शीर्ष पर हिंदी के समाचार-पत्र ही हैं। किंतु, आज हिंदी पत्रकारिता में वह बात नहीं रह गई, जो उदंत मार्तंड में थी। संघर्ष और साहस की कमी कहीं न कहीं दिखाई देती है। दरअसल, उदंत मार्तंड के घोषित उद्देश्य ‘हिंदुस्थानियों के हित के हेत’ का अभाव आज की हिंदी पत्रकारिता में दिखाई दे रहा है। हालाँकि, यह भाव पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है, लेकिन बाजार के बोझ तले दब गया है। व्यक्तिगत तौर पर मैं मानता हूँ कि जब तक अंश मात्र भी ‘देशहित’ पत्रकारिता की प्राथमिकता में है, तब तक ही पत्रकारिता जीवित है। आवश्यकता है कि प्राथमिकता में यह भाव पुष्ट हो, उसकी मात्रा बढ़े। समय आ गया है कि एक बार हम अपनी पत्रकारीय यात्रा का सिंहावलोकन करें। अपनी पत्रकारिता की प्राथमिकताओं को जरा टटोलें। समय के थपेडों के साथ आई विषंगतियों को दूर करें। समाचार-पत्रों या कहें पूरी पत्रकारिता को अपना अस्तित्व बचाना है, तब उदंत मार्तंड के उद्देश्य को आज फिर से अपनाना होगा। अन्यथा सूचना के डिजिटल माध्यम बढ़ने से समूची पत्रकारिता पर अप्रासंगिक होने का खतरा मंडरा ही रहा है। असल में आज की पत्रकारिता के समक्ष अनेक प्रकार की चुनौतियां मुंहबांए खड़ी हैं। यह चुनौतियां पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों से डिगने के कारण उत्पन्न हुई हैं। पूर्वजों ने जो सिद्धांत और मूल्य स्थापित किए थे, उनको साथ लेकर पत्रकारिता मिशन से प्रोफेशन की ओर जाती, तब संभवत: कम समस्याएं आतीं। क्योंकि मूल्यों और सिद्धांतों की उपस्थिति में प्रत्येक व्यवसाय में मर्यादा और नैतिकता का ख्याल रखा जाता है। किंतु, जैसे ही हम तय सिद्धांतों से हटते हैं, मर्यादा को लांघते हैं, तब स्वाभाविक तौर पर चुनौतियां सामने आने लगती हैं। नैतिकता के प्रश्न भी खड़े होने लगते हैं। यही आज मीडिया के साथ हो रहा है। मीडिया के समक्ष अनेक प्रश्न खड़े हैं। स्वामित्व का प्रश्न। भ्रष्टाचार का प्रश्न। मीडिया संस्थानों में काम करने वाले पत्रकारों के शोषण, स्वाभिमान और स्वतंत्रता के प्रश्न हैं। वैचारिक पक्षधरता के प्रश्न हैं। ‘भारतीय भाव’ को तिरोहित करने का प्रश्न। इन प्रश्नों के कारण उत्पन्न हुआ सबसे बड़ा प्रश्न- विश्वसनीयता का है।इसे भी पढ़ें: खबरों के साधन बढ़े पर खबर का स्तर गिरायह सब प्रश्न उत्पन्न हुए हैं पूँजीवाद और कम्युनिज्म के उदर से। सामान्य-सा फलसफा है कि बड़े लाभ के लिए बड़ी पूँजी का निवेश किया जाता है। आज अखबार और न्यूज चैनल का संचालन कितना महंगा है, हम सब जानते हैं। अर्थात् मौजूदा दौर में मीडिया पूँजी का खेल हो गया है। एक समय में पत्रकारिता के व्यवसाय में पैसा ‘बाय प्रोडक्ट’ था। लेकिन, उदारीकरण के बाद बड़ा बदलाव मीडिया में आया है। ‘बाय प्रोडक्ट’ को प्रमुख मान कर अधिक से अधिक धन उत्पन्न करने के लिए धन्नासेठों ने समाचारों का ही व्यवसायीकरण कर दिया है। यही कारण है कि मीडिया में कभी जो छुट-पुट भ्रष्टाचार था, अब उसने संस्थागत रूप ले लिया है। वहीं, कम्युनिस्टों ने अपनी विचारधारा के प्रसार और भारतीयता को कमजोर करने के लिए पत्रकारिता को एक साधन के रूप में अपनाया। आज भी मीडिया में कम्युनिस्टों की पकड़ साफ दिखायी देती है। इसलिए वे जब चाहते हैं, भारत विरोधी विमर्श खड़े कर देते हैं। इस्लामिक आक्रामकता पर पर्दा डालने और हिन्दुओं को सांप्रदायिक सिद्ध करने में कम्युनिस्ट पत्रकारों ने ऐड़ी-चोटी का जोर लगाया है। अभी हाल ही में भोपाल में ‘लव जिहाद’ का बड़ा मामला सामने आया, जिसमें आरोपी मुस्लिम लड़के भी स्वीकार कर रहे हैं कि हिन्दू लड़कियों को धोखे स फंसाना और उनका यौन शोषण करना, उनके लिए सवाब का काम है। जब हिन्दी के प्रमुख समाचारपत्रों ने मुस्लिम लड़कों की इस स्वीकारोक्ति को प्रकाशित किया, तब कम्युनिस्ट माइंडसेट के मीडियाकर्मियों को बहुत बुरा लगा। उन्होंने अपने संस्थानों के डिजिटल एवं प्रिंट संस्थानों में इसके खिलाफ लिखना शुरू कर दिया। मतलब सच सामने नहीं आना चाहिए। भले ही हिन्दू लड़कियां मजहबी दरिंदों का शिकार होती रहें। पता नहीं उन्हें सच्ची बात लिखना, सांप्रदायिकता और मुस्लिम विरोध क्यों लगता है? इस्लामिक अपराध पर पर्दा डालने के लिए इसी प्रकार के कम्युनिस्ट एक से बढ़कर एक चालाकियां दिखाते हैं। जब कोई मौलवी दुष्कर्म या किसी आपराधिक कृत्य में पकड़ा जाता है, तब ये उसके लिए मौलवी या औलिया नहीं अपितु साधु या बाबा शब्द का उपयोग करते हैं। लोगों को इसी प्रकार भ्रमित करने की पत्रकारिता कम्युनिस्टों ने की है। हिन्दुओं की मॉब लिंचिंग के समाचार को सिंगल कॉलम में कहीं छिपा दिया जाता है, जबकि मुस्लिम व्यक्ति की मॉब लिंचिंग पर भारत से लेकर अमेरिका तक के समाचारपत्रों के प्रथम पृष्ठ से लेकर संपादकीय पृष्ठ तक रच दिए जाते हैं। यह दोहरा आचरण ही दोनों समुदायों के बीच नफरत फैलाता है। ऐसे ही कुछ

Hindi Journalism Day 2025: ‘देशहित’ से ही बचेगी पत्रकारिता की साख
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By Kavita Sharma, Priya Mehta, and Anu Jain | Team haqiqatkyahai
हिंदी पत्रकारिता का महत्व
भारत में हिंदी पत्रकारिता की नींव 30 मई, 1826 को रखी गई थी। उस समय के पहले समाचार-पत्र ‘उदंत मार्तंड’ के जरिए पत्रकारिता का प्रारंभ हुआ। इसका उद्देश्य था ‘हिंदुस्थानियों के हित के हेत’ ऐसा एक ऐसा उद्देश्य जिससे आजादी के आंदोलन को बल मिला। पंडित युगलकिशोर द्वारा प्रकाशित इस पत्रिका ने अपने समय की पत्रकारिता को न केवल सफलता दिलाई, बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी एक प्रमुख भूमिका निभाई।
आज के संदर्भ में हिंदी पत्रकारिता
यदि हम वर्तमान हिंदी पत्रकारिता की बात करें, तो यह स्पष्ट है कि आज की पत्रकारिता अपने नैतिकता और मूल सिद्धांतों से कई मील दूर जा चुकी है। ‘उदंत मार्तंड’ का संकल्प ‘देशहित’ आज कहीं खो गया है। वर्तमान समय में अधिकतर पत्रकारिता बाजार के दबाव में आकर चल रही है, जिस कारण पत्रकारिता की साख को संकट का सामना करना पड़ रहा है।
मौजूदा चुनौतियाँ
आज हिंदी पत्रकारिता कई चुनौतियों का सामना कर रही है। इन चुनौतियों में शामिल है स्वामित्व का प्रश्न, मीडिया में बढ़ता भ्रष्टाचार, और पत्रकारों का शोषण। जब से पत्रकारिता को एक पेशा माना गया है, तब से इसके मूल सिद्धांतों की उपेक्षा हो रही है। पत्रकारिता के आदर्शों को भुलाकर, इसे व्यवसायिकता के दलदल में धकेल दिया गया है।
विश्वसनीयता का संकट
पत्रकारिता की विश्वसनीयता भी त्यागी जा रही है। राजनीतिक और वित्तीय स्वार्थों के कारण, अदृश्य हाथों ने मीडिया संस्थानों को नियंत्रित करना शुरू कर दिया है। यह स्थिति जनसामान्य की जागरूकता को हानि पहुंचा रही है। जरूरत है कि पत्रकारिता को फिर से ‘राष्ट्र सबसे पहले’ की भावना से जोड़ें।
क्या करें?
हमें अपने पत्रकारिता के इतिहास की ओर लौटने की आवश्यकता है। हमें ‘उदंत मार्तंड’ के उद्देश्य को पुनर्जीवित करना होगा। ‘देशहित’ को पत्रकारिता की प्राथमिकता बनाकर ही हम अपनी साख को बचा सकते हैं। जब तक हम अपने शब्दों की प्रभावशीलता को समझेंगे और पत्रकारिता को एक मिशन के रूप में लेंगे, तब तक हम सफल और विश्वसनीय रह पाएंगे।
निष्कर्ष
आज का समय पत्रकारिता के लिए एक चुनौतीपूर्ण समय है। हालांकि, यदि हम एकजुट होते हैं और अपने पेशे का सम्मान करते हैं, तो हम सब कुछ हासिल कर सकते हैं। पत्रकारिता का भविष्य तभी सुरक्षित हो सकता है जब हम ‘देशहित’ को अपने कार्यों में प्राथमिकता दें।
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